
वॉशिंगटन/नई दिल्ली। अमेरिका ने एच-1बी वीज़ा प्रणाली में बड़ा बदलाव करते हुए हर आवेदक पर प्रति वर्ष 1 लाख डॉलर (करीब ₹88 लाख) का नया शुल्क लगाने का ऐलान किया है। यह आदेश राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नई अधिसूचना के तहत 21 सितंबर से लागू होगा। इस कदम से सबसे ज्यादा असर भारतीय आईटी पेशेवरों और उन कंपनियों पर पड़ने की आशंका है, जो हर साल हजारों की संख्या में अपने कर्मचारियों को अमेरिका भेजती हैं।
भारतीय आईटी सेक्टर पर असर
भारतीय आईटी उद्योग एच-1बी वीज़ा का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS), इंफोसिस, विप्रो और टेक महिंद्रा जैसी कंपनियाँ हर साल हजारों कर्मचारियों को इस वीज़ा पर अमेरिका भेजती हैं।
कंपनियों पर बोझ : प्रति कर्मचारी ₹88 लाख की सालाना फीस छोटे-मध्यम स्तर की कंपनियों के लिए असहनीय होगी।
चयन सख्त होगा : अब केवल सीनियर या अत्यधिक विशेषज्ञता वाले कर्मचारियों को ही प्राथमिकता दी जाएगी।
ग्रीन कार्ड की राह और कठिन : जिनका ग्रीन कार्ड प्रोसेस लंबा है, उन्हें हर साल यह भारी शुल्क चुकाना होगा।
नया “गोल्ड कार्ड” विकल्प
ट्रम्प प्रशासन ने साथ ही एक नया “गोल्ड कार्ड” वीज़ा कार्यक्रम भी शुरू किया है। इसमें यदि कोई व्यक्ति $1 मिलियन (करीब ₹8.8 करोड़) का योगदान करता है, या कोई कंपनी $2 मिलियन देती है, तो विशेष वीज़ा और प्रवासी सुविधा मिलेगी। इसे अमेरिका में उच्च निवेश और प्रतिभा को आकर्षित करने की कोशिश माना जा रहा है।
क्यों लगाया गया इतना बड़ा शुल्क
अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि इस शुल्क का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल “उच्च कौशल वाले” लोग ही इस वीज़ा के लिए आवेदन करें। सरकार का तर्क है कि कई बार कंपनियाँ विदेशी पेशेवरों को अपेक्षाकृत कम वेतन पर नियुक्त करती हैं, जिससे अमेरिकी श्रमिकों के अवसर प्रभावित होते हैं। अब नए नियमों के तहत एच-1बी वीज़ा धारकों को स्थानीय बाज़ार दर (prevailing wage) के अनुरूप ही वेतन देना होगा।