
देश के विपक्षी दलों को विगत राज्यों के विधानसभा और लोकसभा में मिली करारी हार पच नहीं पा रही है। विपक्षी दलों ने इस हार का ठीकरा चुनाव आयोग पर फोडऩे में कसर बाकी नहीं रखी। इसके लिए विपक्षी दलों ने तमाम तकरीबें इस्तेमाल की। इसके बावजूद चुनावी हार का सिलसिला थम नहीं सका। अब नया विवाद बिहार में मतदाता सूची के पुनर्निरीक्षण पर हो रहा है।
विपक्षी दल इसे भाजपा की चाल बता रहे हैं, ताकि लाखों मतदाता मतदान से वंचित रह सकें। इससे पहले भी विधानसभा और लोक सभा चुनाव में विपक्षी दलों ने इसी तरह का बखेड़ा करने का प्रयास किया था। इसके लिए चुनाव आयोग को निशाना बनाया गया। वास्तविक जमीनी मुद्दों पर चुनाव लडऩे के बजाए इस तरह की पैतरेबाजी से विपक्षी दलों को मतदाताओं ने नकारने में कसर बाकी नहीं रखी।

मौजूदा मुद्दा भी कुछ इसी तरह का है। इसको लेकर बिहार चुनाव में चुनाव आयोग पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इसे भाजपा की मिलीभगत की साजिश करार दिया जा रहा है। जबकि चुनाव आयोग ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे विपक्षी दल बौखलाएं हुए हैं। आयोग संविधान के दायरे में रह कर ही बिहार में चुनाव की तैयारियों को अंजाम दे रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग की विशेष प्रक्रिया जिसे संक्षेप में सर कहा जा रहा है। दरअसल, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए किसी भी चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट किया जाता है जो एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन चुनाव आयोग ने इस बार 1 जुलाई से मतदाता सूची की विशेष गहन समीक्षा शुरू कर दी है। इसे लेकर विपक्ष सवाल उठा रहा है, नीयत पर शक़ कर रहा है।
चुनाव आयोग की दलील है कि बिहार में मतदाता सूची की गंभीर समीक्षा की ऐसी आखिरी प्रक्रिया 2003 में हुई थी और उसके बाद से नहीं हुई है। इसलिए ये मुहिम ज़रूरी है। समीक्षा के लिए चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए एक फॉर्म तैयार किया है, जो मतदाता 1 जनवरी, 2003 की मतदाता सूची में शामिल थे, उन्हें सिर्फ ये अर्थात गणना पत्र भरकर जमा करना है। उन्हें कोई सबूत नहीं देना होगा। बिहार में ऐसे 4.96 करोड़ मतदाता हैं। चुनाव आयोग ने 2003 की ये वोटर लिस्ट अपनी वेबसाइट पर डाल दी है। सारा हंगामा 2003 के बाद मतदाता बने लोगों से सबूत मांगने को लेकर है।
चुनाव आयोग के मुताबिक 1 जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए नागरिकों जो 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा। ऐसे सभी मतदाता आज की तारीख़ में 38 साल या उससे बड़े होंगे। जो लोग 1 जुलाई 1987 से लेकर 2 दिसंबर 2004 के बीच पैदा हुए हैं, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता में से किसी एक की जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा।
ये सभी लोग कऱीब आज 21 से 38 साल के बीच के होंगे। इसके अलावा 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए नागरिकों को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता दोनों की ही जन्मतिथि और जन्मस्थान का भी सबूत देना होगा। बस इन ही सबूतों की मांग को लेकर सारा विवाद खड़ा हो गया है कि इतनी जल्दी ये सबूत कहां से लेकर आएं। विपक्ष ने और कई नागरिक संगठनों ने ये सवाल खड़े किए हैं। आयोग के मुताबिक 2003 के बाद बीते 22 साल में तेज़ी से शहरीकरण हुआ है, अर्थात गांवों से लोग शहरों में गए हैं प्रवास काफ़ी तेज़ हुआ है।
बिहार के लोग दूसरे राज्यों गए हैं, दूसरे राज्यों के लोग बिहार आए हैं। कई नागरिक 18 साल पूरा करने के बाद नए मतदाता बने हैं। कई मतदाताओं की मृत्यु की जानकारी अपडेट नहीं हुई है। सबसे अहम मतदाता सूची में दूसरे देशों से आए अवैध अप्रवासियों को भी अलग किया जाना ज़रूरी है। जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, हाईस्कूल सर्टिफिकेट, स्थायी निवास प्रमाण पत्र, वन अधिकार प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, एनआरसी में नाम, परिवार रजिस्टर ज़मीन या आवास आवंटन पत्र, केंद्र या राज्य सरकार के कर्मचारी या पेंशनर का कोई आई कार्ड सरकार या बैंक या पोस्ट ऑफिस या एलआईसी या सरकारी कंपनी का आई कार्ड या सर्टिफिकेट, इनमें से कोई भी एक पेश करना अनिवार्य है। चुनाव आयोग के मुताबिक ये लिस्ट पूरी नहीं है। मतलब कुछ और दस्तावेज़ों को भी मान्यता दी जा सकती है।
चुनाव आयोग के मुताबिक बूथ लेवल ऑफि़सर 25 जुलाई तक घर-घर जाकर गणना पत्रों में ये ब्योरा जमा करेंगे। 1 अगस्त को मतदाता सूची का ड्राफ्ट प्रकाशित किया जाएगा। अगर किसी को कोई आपत्ति है तो उन्हें दावों और ऐतराज के लिए 1 सितंबर तक का समय मिलेगा। 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी। विपक्षी दलों का तर्क है कि ये सारा काम जल्दबाज़ी में हो रहा है, जिसकी वजह से लाखों सही मतदाता भी लिस्ट से बाहर हो जाएंगे। 26 जुलाई तक अपने या अपने माता-पिता की जन्मतिथि या जन्मस्थान के सबूत जुटाना सभी लोगों के लिए संभव नहीं होगा। ये भी तर्क है कि चुनाव आयोग इस बहाने बिहार में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लाने की कोशिश कर रहा है। वर्ष 2003 के बाद दर्ज सभी मतदाताओं की स्थिति पर सवाल खड़े कर दिए गए हैं। इस आधार पर पूछा जा रहा है कि क्या 2003 से 2024 तक हुए चुनावों पर सवाल खड़ा नहीं हो जाएगा। वहीं चुनाव आयोग इन सभी आशंकाओं को खारिज करते हुए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए इसे ज़रूरी बता रहा है।
यह पहला मौका नहीं है जब विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग को चुनावी राजनीति में घसीटने की कोशिश की हो, इससे पहले भी चुनाव की पराजय का ठीकरा आयोग के सिर फोडऩे की कोशिशें की जाती रही हैं। महाराष्ट्र-हरयिाणा के चुनाव में भाजपा को मिली विजय के बाद ईवीएम पर सवाल उठाए गए। राहुल गांधी से लेकर शरद पवार और उद्धव ठाकरे तक ने ईवीएम पर सवाल उठाए। विपक्षी दलों ने इस हार से सबक सीखने और देश के मतदाताओं की नब्ज पहचानने के बजाए ईवीएम के बजाए बैलेट बॉक्स से चुनाव कराने की मांग की। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, लेकिन कोर्ट ने ईवीएम पर पाबंदी लगाने की मांग खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, जब आप चुनाव जीतते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं होती, लेकिन जब आप चुनाव हारते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ होती है। यह ठीक नहीं है। विपक्षी दलों को समझना होगा कि सत्ता तभी मिलेगी जब देश के आम लोगों से जुड़े विकास और भ्रष्टाचार के लिए कोई एजेंडा तय करेंगे। सिर्फ भाजपा और चुनाव आयोग पर आरोप लगाने से मतदाता प्रभावित नहीं होंगे।
- योगेन्द्र योगी
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)