
जगदीप धनखड़ का राजनीतिक सफर भारतीय लोकतंत्र में सत्ता और संवैधानिक दायित्वों के टकराव का एक दिलचस्प उदाहरण है। उन्होंने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और बाद में उपराष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान राजनीतिक विवादों और विचारधारात्मक टकरावों का सामना किया।
राज्यपाल के रूप में जगदीप धनखड़
- ममता बनर्जी के साथ टकराव: जगदीप धनखड़ का पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में कार्यकाल ममता बनर्जी सरकार के साथ लगातार टकरावों से भरा रहा। उन्होंने ममता सरकार की नीतियों और प्रशासनिक फैसलों पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कीं।
- संवैधानिक दायरे से बाहर: ममता बनर्जी ने धनखड़ पर आरोप लगाया कि वह अपने संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर काम कर रहे हैं और बीजेपी के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं।
- बीजेपी का बचाव: बीजेपी ने धनखड़ का खुलकर बचाव किया और ममता बनर्जी की नाराज़गी को राजनीतिक दुर्भावना बताया।
उपराष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़
- राज्यसभा की गरिमा की रक्षा: धनखड़ ने राज्यसभा की गरिमा की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और कई बार कार्यवाही में हस्तक्षेप करते हुए भाजपा सदस्यों तक को संयम की सलाह दी।
- केंद्र सरकार के साथ टकराव: धनखड़ के बयान और कार्य केंद्र सरकार के लिए असहज करने वाले थे, जिससे दोनों के बीच तनाव बढ़ गया।
- न्यायपालिका पर टिप्पणियाँ: धनखड़ ने समय-समय पर न्यायपालिका को लेकर भी सार्वजनिक रूप से कई तरह की टिप्पणियां कीं, जिससे केंद्र सरकार असहज हुई।
- विपक्ष का दोहरापन
- विपक्षी दलों के आरोप: विपक्षी दलों ने धनखड़ पर तमाम आरोप लगाए थे और उन्हें सरकार के चीयरलीडर की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया था।
- अचानक बदलाव: अब वही विपक्षी नेता धनखड़ के प्रति अपने रुख में अचानक बदलाव लाते हुए उन्हें किसान पुत्र बता रहे हैं और कह रहे हैं कि उनके साथ अन्याय किया गया है।
- जनता की याददाश्त: विपक्ष के नेताओं को समझना होगा कि जनता की याददाश्त कमजोर हो सकती है, लेकिन इतनी भी नहीं कि वो इतनी जल्दी भूल जाए कि विपक्षी दल धनखड़ के इस्तीफे से पहले तक उनके बारे में क्या-क्या कह रहे थे।
2022 में जब जगदीप धनखड़ देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति बने तो यह भाजपा के लिए एक रणनीतिक जीत मानी गई, क्योंकि पार्टी राज्यसभा में एक सख्त और केंद्र के अनुकूल संचालनकर्ता की उम्मीद कर रही थी। लेकिन कुछ ही समय में यह स्पष्ट होने लगा कि धनखड़ इस भूमिका को केवल एक औपचारिक दायरे तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने राज्यसभा की गरिमा की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उन्होंने कई बार कार्यवाही में हस्तक्षेप करते हुए भाजपा सदस्यों तक को संयम की सलाह दी। उन्होंने सार्वजनिक मंचों से केंद्रीय मंत्रियों की उपस्थिति में कई ऐसे बयान दिये जोकि सरकार की नीतियों के विपरीत लगते थे। संसद में विपक्ष को बोलने का मौका देने की उनकी प्रतिबद्धता ने भी केंद्र सरकार को असहज किया। जगदीप धनखड़ ने समय-समय पर न्यायपालिका को लेकर भी सार्वजनिक रूप से कई तरह की टिप्पणियां कीं। इससे केंद्र सरकार असहज होने लगी। कई रिपोर्टों में यह भी सामने आया था कि उनकी राय प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय से मेल नहीं खा रही थी।
इस सबके चलते वह भाजपा, जो कभी ममता बनर्जी द्वारा लगाए गए आरोपों को सिरे से खारिज करती थी, अब खुद वैसी ही स्थिति में आ गई थी। अब धनखड़ “अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहे हैं”, “संविधान का मनमाना अर्थ निकाल रहे हैं”, जैसे पुराने आरोप नए संदर्भ में भाजपा की तरफ से सुनाई देने लगे थे। पार्टी के अंदरूनी हलकों से पहले भी इस तरह की खबरें आई थीं कि सरकार और उपराष्ट्रपति के बीच समन्वय नहीं बन पा रहा है। अंततः इस असहमति की परिणति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के रूप में हुई, जो यह दिखाता है कि संवैधानिक स्वतंत्रता तब तक ही सहनीय है, जब तक वह सत्ता के हितों के विरुद्ध न जाए।
देखा जाये तो जगदीप धनखड़ के दो कार्यकाल- एक बार राज्यपाल के रूप में ममता बनर्जी को असहज करना और फिर उपराष्ट्रपति के रूप में केंद्र सरकार को चुनौती देना, दिखाता है कि सत्ता कभी भी किसी संवैधानिक पदाधिकारी की ‘निष्पक्षता’ को लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह मामला भारत के लोकतंत्र में संवैधानिक मर्यादाओं, संस्थागत स्वायत्तता और राजनीतिक हस्तक्षेप के बीच के जटिल रिश्तों को भी उजागर करता है। जगदीप धनखड़ का राजनीतिक सफर इसका सबसे सटीक उदाहरण है।
दूसरी ओर विपक्ष का दोहरापन भी देखने लायक है। हम आपको याद दिला दें कि विपक्षी दलों ने 10 दिसंबर को राज्यसभा सचिवालय में प्रस्तुत किए गए अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस में जगदीप धनखड़ पर तमाम आरोप लगाये थे। यही नहीं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अक्सर आरोप लगाते रहे हैं कि धनखड़ उन्हें सदन में बोलने नहीं देते। वहीं जयराम रमेश ने कहा था कि धनखड़ एक निष्पक्ष अंपायर की तरह नहीं बल्कि सरकार के चीयरलीडर की तरह व्यवहार करते हैं। तृणमूल कांग्रेस के सांसद कल्याण बनर्जी ने तो संसद परिसर में ही जगदीप धनखड़ की मिमिक्री की थी और सारे विपक्षी सांसद वह सब देखकर ठहाके लगा रहे थे। यही नहीं, कल्याण बनर्जी की ओर से की जा रही मिमिक्री का राहुल गांधी वीडियो बना रहे थे। लेकिन हैरानी की बात है कि वही सब विपक्षी नेता आज धनखड़ के प्रति अपने रुख में अचानक बदलाव लाते हुए उन्हें किसान पुत्र बता रहे हैं और कह रहे हैं कि उनके साथ अन्याय किया गया है। विपक्ष के नेताओं को समझना होगा कि जनता की याददाश्त कमजोर हो सकती है, लेकिन इतनी भी नहीं कि वो इतनी जल्दी भूल जाए कि विपक्षी दल धनखड़ के इस्तीफे से पहले तक उनके बारे में क्या-क्या कह रहे थे।